Natasha

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राजा की रानी

किसका-यह सुनकर तुम क्या करोगे; तुम तो खूब हो!”


जो वैष्णवी माला गूँथ रही थी वह हँस पड़ी और उसने मुँह नीचा कर लिया। ठाकुरजी के कमरे में काले पत्थर और पीतल की राधा-कृष्ण की युगल मूर्तियाँ हैं। एक नहीं, बहुत-सी। यहाँ भी पाँच-छह वैष्णवियाँ काम में लगी हुई हैं। आरती का वक्त हो रहा है, साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है।

भक्तिपूर्वक यथारीति प्रणाम कर बाहर आ गया। ठाकुरजी के कमरे के अलावा और सब कमरे मिट्टी के हैं, पर सँभाल-सफाई की सीमा नहीं है। बिना आसन के कहीं भी बैठते संकोच नहीं होता, तथापि कमललता ने सामने के बरामदे में एक ओर आसन बिछा दिया। कहा, “बैठो, तुम्हारे रहने का कमरा जरा ठीक कर आऊँ।”

“मुझे क्या आज यहीं रहना पड़ेगा?”

“क्यों, डर क्या है? मेरे रहते तुम्हें तकलीफ नहीं होगी।”

मैंने कहा, “तकलीफ के लिए नहीं कहता, पर गौहर जो नाराज होगा।”

वैष्णवी ने कहा, “यह भार मेरे ऊपर है। मेरे रखने पर तुम्हारा मित्र जरा भी नाराज न होगा।” कहकर वह हँसती हुई चली गयी।

मैं अकेला बैठा हुआ अन्यान्य वैष्णवियों का काम देखने लगा। सचमुच ही उनके पास नष्ट करने को जरा भी वक्त नहीं है। मेरी ओर किसी ने घूमकर भी नहीं देखा। करीब दस मिनट बाद जब कमललता लौटकर आयी तब काम खत्म कर सब उठ गयी थीं। पूछा, “तुम इस मठ की अधिकारिणी हो क्या?”

कमललता ने जीभ काटकर कहा, “हम सब गोविन्दजी की दासी हैं- कोई छोटा-बड़ा नहीं है। एक-एक पर एक एक का भार है। मेरे ऊपर प्रभू ने यह भार दिया है।” कहकर उसने मन्दिर के उद्देश्य से हाथ जोड़कर सिर से लगा लिये। कहा, “अब कभी ऐसी बात जबान पर मत लाना।”

मैंने कहा, “ऐसा ही होगा। अच्छा, बड़े गुसाईं और गौहर गुसाईं क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं?”

वैष्णवी ने कहा, “वे अभी आते ही होंगे। नदी में स्नान करने गये हैं।”

“इतनी रात को? और इस नदी में?”

वैष्णवी ने कहा, “हाँ।”

“गौहर भी?”

“हाँ, गौहर गुसाईं भी।”

“पर मुझे ही क्यों नहीं स्नान कराया?”

“वैष्णवी ने हँसकर कहा, “हम किसी को स्नान नहीं करातीं। वे अपने आप करते हैं। भगवान की दया होने पर एक दिन तुम भी करोगे और उस दिन मना करने पर भी नहीं मानोगे।”

मैंने कहा, “गौहर भाग्यवान है। पर मेरे पास तो रुपया नहीं है। मैं गरीब आदमी हूँ, इस कारण शायद मेरे प्रति परमात्मा की दया न हो।”

वैष्णवी शायद इशारा समझ गयी, और नाराज होकर कुछ कहने वाली ही थी पर कहा नहीं। फिर बोली, “गौहर गुसाईं कुछ भी हों पर तुम भी गरीब नहीं हो। जो आदमी ढेर रुपया देकर दूसरे की लड़की का उद्धार करता है, भगवान उसे गरीब नहीं मानते। तुम्हारे ऊपर भी दया होना आश्चर्य नहीं है।”

मैंने कहा, “तब तो वह डर की बात है। तो भी, किस्मत में जो लिखा है वह होगा ही, टाला नहीं जा सकता- पर पूछता हूँ कि कन्या के उद्धार की खबर तुम्हें कहाँ से मिली?”

वैष्णवी ने कह, “हमें चार जगह से भीख माँगनी पड़ती है, इसलिए हमें सब खबरें मिल जाती हैं।”

“पर यह खबर शायद अभी तक नहीं मिली है कि मुझे रुपये देकर लड़की का उद्धार नहीं करना पड़ा?”

वैष्णवी कुछ विस्मित हुई। बोली, “नहीं, यह खबर नहीं मिली। पर हुआ क्या, शादी टूट गयी?”

“शादी नहीं टूटी, लेकिन कालिदास बाबू टूट गये हैं- खुद दूल्हा के बाप ही। लड़के को बेचकर दूसरे की भिक्षा के दान से मिले हुए दहेज को हाथ पसारकर लेने में उन्हें शर्म आई। इससे मैं भी बच गया।” कहकर मैंने सारा मामला संक्षेप में बता दिया। वैष्णवी ने सविस्मय कहा, “कहते क्या हो जी, यह तो बिल्कुंल अनहोनी बात हुई!”

“ईश्वर की दया। सिर्फ गौहर गुसाईं ही क्या अंधेरे में गन्दी नदी के पानी में गोते लगायेगा, संसार में और कहीं भी कुछ अनहोनी बात नहीं होगी? उनकी लीला ही फिर किस तरह जाहिर होगी, बोलो?” कहकर जैसे ही मैंने वैष्णवी का मुँह देखा वैसे ही समझ गया कि यह ठीक नहीं हुआ- सीमा लाँघ गया हूँ। वैष्णवी ने किन्तु प्रतिवाद नहीं किया, मन्दिर की ओर हाथ उठाकर उसने सिर्फ नि:शब्द नमस्कार कर लिया। मानो अनपराधा को क्षमा करने की भिक्षा माँगी।

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